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ज़िन्दगी गुलज़ार है

१८ अप्रैल – कशफ़

आज पूरे एक हफ्ते के बाद मैं कॉलेज गई थी. इतनी हिम्मत नहीं थी कि उस वाक्ये के फ़ौरन बाद कॉलेज जा सकती. पूरा हफ्ता मैं डायरी लिख नहीं पाई. लिखने को था भी क्या? सिर्फ़ आँसू. एक हफ्ता पहले मैंने सोचा था कि मैं बहुत मज़बूत हो गई हूँ, मगर ऐसा नहीं था. डायरी लिखने तक मैं गुस्से और शॉक में थी और जब अपने अहसास को समझ पाती, तो बे-इख़्तियार (एकाएक, अचानक, अकस्मात) रोने लगती थी.

मैं हॉस्टल की छत पर चली गई और ख़ुद को वहाँ से नीचे फेंक देना चाहती थी. मौत का तसव्वुर (कल्पना) मुझे बहुत तस्कीन (आराम, तसल्ली, सांत्वना) पहुँचा रहा था. मगर मैं ख़ुद को मार नहीं सकती. बहुत से चेहरे और आवाजें मेरे कदमों से लिपट गई थीं. मेरे माँ-बाप भी, बहन के चेहरे, उनकी उम्मीदें, उनके ख्वाब, उनकी आवाज़ें सबने मुझे जकड़ लिया था और मैं रुक गई थी. मुझे कोई हक नहीं था कि मैं उनके ख्वाब को छीनू. उन्हें रौंद डालूं. फिर मैं वहाँ बैठकर रोती रही थी. उन सात दिनों में मैंने कुछ और नहीं किया. हर चीज़ जैसे ख़त्म हो गई है, अब वो दोबारा से मुझे ख़ुद को जोड़ना है, ज़िन्दा रहना है.

और आज ख़ुद पर जबर करते हुए मैं कॉलेज चली गई थी. डिपार्टमेंट की तरफ़ जाते हुए मैंने ज़ारून के ग्रुप को देख लिया था. वो सब किसी बात को बुलंद आवाज़ में डिस्कस कर रहे थे और हँस रहे थे. मैं उनसे अभी कुछ दूर थी और पहली दफ़ा मैंने महसूस किया कि मेरे हाथ-पाँव कांप रहे हैं. मुझे उन लोगों के क़रीब से गुज़र कर क्लास में जाना था और मेरे चेहरे पर पसीना आ रहा था. एक लम्हे को मेरा दिल चाहा कि मैं वहाँ से भाग जाऊं, लेकिन मैं कब तक और किस-किस से भागती? सामना तो मुझे करना ही था.

बड़ी ख़ामोशी से मैं उनके पास से गुज़री थी. मुझे देखने के बाद वो भी बिल्कुल चुप हो गए थे और यही ख़ामोशी मेरे क्लास में दाखिल होते वहाँ भी छा गई थी. अपने इस्तिक़बाल(स्वागत) से मैं समझ गई थी कि लाइब्रेरी का वाक्या उन लोगों के इल्म में आ चुका है. ज़ाहिर है ये बात छुप नहीं सकती थी. मैं सिर्फ़ ये चाहती थी कि कोई टीचर मुझसे इस वाक्ये के बारे में बात ना करें और सारी क्लासेस मामूल (routine) के मुताबिक होती रहे. टीचर्स ने मेरी गैर-हाज़िरी के बारे में ज़रूर पूछा, मगर और कुछ दरियाफ्त (पूछताछ) नहीं किया, लेकिन सर अबरार ने मुझे देखते ही पूछा था, “आप इतने दिन कहाँ थी?”

पता नहीं उनका लहज़ा सख्त था या सिर्फ़ मुझे ही लगा, “सर! मुझे कुछ काम था.” मैंने वही जुमला दोहराया, जो मैं सुबह से दोहरा रही थी.

क्या काम था आपको?”

सर मुझे कुछ नोट्स बनाने थे.” मैंने एक और झूठ बोला.

आप और ज़ारून इस पीरियड के बाद मेरे ऑफिस में आयें.” उन्होंने वो बात कही थी, जिससे मैं बचना चाह रही थी. अगली दो क्लासेस लेने के बाद मैं उनके ऑफिस चली गई थी. वहाँ वो पहले से ही मौज़ूद था. सर अबरार ने मुझे देख कर अपनी टेबल के सामने पड़ी हुई कुर्सी की तरफ़ इशारा किया था.

आओ कशफ़! बैठो यहाँ पर.”

मैं ख़ामोशी से कुर्सी पर बैठ गई.

उस दिन लाइब्रेरी में क्या हुआ था?” उन्होंने बगैर किसी तहमीद के पूछा था.

किस दिन सर?” मैंने लापरवाही ज़ाहिर करने की कोशिश की थी.

उसी दिन, जिस दिन के बाद से आप कॉलेज नहीं आ रही.” इस दफ़ा उनका लहज़ा खासा सख्त था.

सर कुछ नहीं हुआ था.” मुझे उनके चेहरे पर हैरानी नज़र आई थी. शायद वो मुझसे इस जवाब की तवक्को (उम्मीद)  नहीं कर रहे थे.

अगर कुछ नहीं हुआ, तो इसने तुम्हें थप्पड़ क्यों मारा था?” वो शायद अब दो टूक बात करना चाहते थे.

ये सवाल आपको थप्पड़ मारने वाले से करना चाहिए.”

वो कुछ देर तक मुझे देखते रहे, फिर उन्होंने ज़ारून की जानिब (ओर, दिशा) रुख कर लिया.

तुमने इस पर हाथ क्यों उठाया?”

इसने मुझे बदकिरदार कहा था और ये सुनकर मैं इसे मैडल देने से तो रहा.”

अब तुम बताओ कि तुमने ऐसी बात क्यों कही?”

मुझे उनके लहज़े से बहुत तकलीफ़ पहुँच रही थी, “वो बदकिरदार है, इसलिए मैंने उसे ऐसा कहा था.”

आप यहाँ पढ़ने आती हैं या दूसरों के बारे में नतीज़ें निकालने. दूसरों के बारे में बात करने का हक़ आपको किसने दिया है? अगर ये बात वो आपके बारे में कहे तो? शर्म आनी चाहिए आपको.” वो एकदम मुझ पर बरस पड़े थे.

मुझे अपने कहे पर कोई अफ़सोस नहीं है. मैं अब भी कहूंगी कि ये एक बदकिरदार शख्स है.” उनके गुस्से की परवाह किये बगैर मैंने अपनी बात को पूरी की थी.

मुझे अफ़सोस है कि तुम मेरे स्टूडेंट्स में शामिल हो. मैं तुम्हारे बारे में बहुत गलत अंदाज़ा लगाता रहा, तुम्हें तो उस्ताद से बात करने की तहज़ीब नहीं है. मैं समझ रहा था कि शायद ज़ारून ने गलती की है और उसे माज़रत करना (माफ़ी मांगना) चाहिए, मगर माज़रत तो तुम्हें करना चाहिए. मेरा ख़याल था कि तुम एक अच्छी फैमिली से ताल्लुक रखती हो. तुम्हारी अच्छी तर्बियत (पालन-पोषण) हुई है, मगर तुमने मेरे इस अंदाज़े को गलत साबित कर दिया है.”

इन सब तारीफ़ों के लिए शुक्रिया. वाकई मेरी अच्छी तर्बियत नहीं हुई है, इसलिए कि मेरे खानदान के पास पैसा नहीं था. इनके खानदान के पास पैसा था, सो उन्होंने इसकी बहुत आला तर्बियत की. आप इसे अच्छी तरह जानते हैं. ये जितना बा-किरदार है, वो भी जानते हैं. आपने कभी इसके अफेयर्स पर बात की है? आज इसे बदकिरदार कहने पर आप मुझसे पूछ रहे हैं कि मैंने इसे ऐसा क्यों कहा. ये सब कुछ ना होता, अगर मैं भी इसके साथ फिरने वाली लड़कियों की कतार में शामिल हो जाती.  फिर सब कुछ ठीक रहता. मेरी गलती सिर्फ़ ये है कि मैंने फ़्लर्ट होने से इंकार किया है और मुझे अपनी इस गलती पर ना कोई अफ़सोस है, ना कोई पछतावा. आपको मुझे ज्यादा बर्दाश्त नहीं करना पड़ेगा, सिर्फ चंद महीनों की बात है. जहाँ तक इस शख्स का ताल्लुक है, तो मेरे नज़दीक इसकी ना कोई अहमियत है, ना ही इज्ज़त. अगर मैं अख़लाकी (शिष्टाचार संबंधी) एतबार से इसकी तरह गिरी हुई होती, तो इसके लिए कोई ज्यादा ख़राब लफ्ज़ इस्तेमाल करती.”

फिर सर अबरार के रद्द-ओ-अमल (reaction/reply) का इंतज़ार किये बगैर मैं दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गयी थी. मैं क्यों सफाइयाँ देती उन्हें, जब मेरा कोई कुसूर नहीं था. वो मुझे बुरा समझेंगे, तो समझते रहें. जब अल्लाह की नज़र में मैं बुरी हूँ, तो दुनिया की नज़र में अच्छा बन कर क्या करना है?

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2 Comments

Radhika

09-Mar-2023 04:30 PM

Nice

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Alka jain

09-Mar-2023 04:16 PM

👌🙏🏻

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